महर्षि दयानंद सरस्वती ने गृह त्याग कब और कैसे किया
मूल शंकर ने एक 21 साल पार कर लिया था । लेकिन उनके मन को चैन नहीं था । इस समय उनकी अवस्था 21 वर्ष पार कर चुके थी । उन्होंने निर्णय कर लिया कि आज रात्रि इस घर और ग्राम में सदा के लिए वह त्याग कर देंगे और योग साधना में अपना मन लगा देंगे । रात का पहला पहर बीत तथा परिवार जन उत्सव के कार्यों से थक कर गहरी नींद में चले गए थे । वैरागी मूल शंकर उठ खड़ा हुआ और दबे पाओं पिता के समृद्ध घर को छोड़कर निकल गया । कभी ना लौट आने के लिए अनजान रास्ता और सन्नाटे से भरी अंधेरी रात परंतु मूल शंकर ने फिर मुड़ कर नहीं देखा । टंकारा से 4 कोस दूर किसी गांव में उसने रात बिताई अंधेरे उठा और फिर चल दिया मुख्य मार्ग से चलना खतरे से खाली नहीं था । इसलिए उबर खाबर टेढ़े मेढ़े रास्ते से चलना उसे सुरक्षित जान पड़ा ।
संध्या होने तक बिना रुके वो चलता रहा । लगभग 15 कोस की यात्रा करके किसी गांव के बाहर बने हनुमान मंदिर में उसने रात में विश्राम किया । सुबह मूल शंकर को घर में ना पाकर गृह जन चिंतित हो उठे । पहले उसे गांव में तलाशा गया जब वह नहीं मिला । तो घुड़सवार और पैदल सैनिकों की टुकड़ियों बनाई गई थी । उन्हें वहां जाने की आज्ञा दी गई जहां जहां मूलशंकर के मिलने की संभावना थी । परंतु कोई परिणाम नही निकला । आखिर सभी निराश होकर टंकारा लौट आए । मूल शंकर घर से निकला तो उसके हाथों में अंगूठियां थी । और कुछ रुपए भी । रास्ते में उसे कुछ साधु मिले उसने उनसे कुछ बातें हुई और उन्होंने उसे अपने जाल में फंसा लिया । उन्होंने कहा यू वैरागी नहीं हुआ जाता । तुम अभी मोह में फंसे हो । वैरागी को वस्त्र आभूषण शोभा नहीं देते । तब मूल शंकर ने अपनी सोने की अंगूठियां और कुछ रुपए उन को भेट कर दिए ।और आगे की राह ली चलते चलते उसे जानकारी मिली सायला स्थान पर लाला भगत नाम का एक श्रेष्ठ पुरुष रहता है । उसके समीप साधु-संत आकर ठहरते रहते हैं । मूल शंकर सायला पहुंचा तो वहां एक ब्रह्मचारी से उसकी भेंट हो गई ब्रह्मचारी ने उसे नैष्टिक ब्रह्मचारी हो जाने का परामर्श दिया ।
मूल शंकर ने उस ब्रह्मचारी का परामर्श मानकर नेस्टिंक ब्रह्मचारी की दीक्षा लेना स्वीकार कर लिया । सन 1846 ईस्वी में ब्रह्मचारी से दीक्षा ले मूल शंकर शुद्ध चैतन्य हो गया और रेशमी वस्त्र धारण कर एक तूम्बा ग्रहण कर लिया । अब शुद्ध चैतन्य अभीष्ट योग साधना में लग गया ।कुछ समय सायला में व्यतीत करने के बाद शुद्ध चैतन्य अन्य किसी विद्वान योगी की तलाश में निकल पड़ा । यात्रा के बीच उसे जानकारी मिली कि अहमदाबाद के समीप कोटा कांगड़ा नाम के छोटे से नगर में वैराग्य का डेरा है । श्री चैतन्य वहां पहुंच गया । उसे रेशमी वस्त्रों में देखकर उसका उपहास किया । इस तरह शुद्ध चेतन ने तुरंत रेशमी वस्त्र उतार फेंके और अपने पास बचे मात्र ₹3 से सूत की साधारण धोतिया खरीद कर धारण कर ली । उस स्थान पर वह 3 माहिने टिका । परंतु वैरागियो के डेरे से अलग ही रहा । इसी स्थान पर उसे कार्तिक में होने वाले सिद्ध पुर के मेले की जानकारी मिली ।
उस मेले में साधु संत योगी महात्मा भी इकट्ठे होते थे इसलिए शुद्ध चैतन्य सिद्धपुर गुजरात की राह पकड़ ली मार्च में उसे अपने खून का परिचित एक बैरागी साधु मेला मूल शंकर को इस देश में देखकर उसे आश्चर्य हुआ मेरा कि नहीं प्रश्नवाचक दृष्टि से शुद्ध चेतन्य को निहारा । तो उसने भावेश में अब तक की संपूर्ण घटना कह सुनाई और सिद्धपुर मेले में जाने का अपना विचार भी बतलाया । साथ ही यह भी बता दिया कि अब वह कभी घर नहीं लौटेगा और योग साधना के द्वारा आवागमन के झंझट से मुक्त होना चाहता है । इस अल्पभेट के पश्चात बैरागी अपनी राह लगा और शुद्ध चेतन ने सिद्ध पुर की ओर प्रस्थान कर लिया । सिद्धपुर पहुंचकर शुद्ध चैतन्य ने नीलकंठ महादेव के मंदिर में अपना आसन जमाया इसके बाद वहां कुछ दंडी स्वामी और ब्रह्मचारी भी विराज रहे थे । सुद चेतन्य ने उनकी संगति करते और मेले में डेरा डाले सभी संतो के पास श्रद्धा बनत होकर विनम्र प्रार्थना करते उनसे अपने ज्ञान पिपासा शांत करते हैं ।
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