महर्षि दयानंद सरस्वती में वैराग्य का उदय कैसे हुआ
महर्षि दयानंद सरस्वती में वैराग्य का उदय कैसे हुआ |
मूल शंकर अभी 16 वर्ष की अवस्था को प्राप्त हुए थे कि घर में एक दुखद घटना घट गई । छोटी बहन जो उस समय 14 साल की थी अचानक बीमार हो गई उसे हैजा हो गया था । वैद्य से उपचार कराया गया परंतु बहन बच ना सकी । 4 घंटे तक बीमारी से जुझने के बाद में मृत्यु को प्राप्त हो गए । घर में रुदन मच गया । अकेला मूल शंकर ही ऐसा था जिसकी आंखों में एक भी आंसू नहीं था । वह एक और खड़ा गहरे चिंतन में खो गया था । क्या संसार के सभी जीव इसी तरह मृत्यु को प्राप्त होंगे और मैं भी एक दिन इसी तरह मृत्यु के चुंगल में जा फसूंगा !
इस विचार ने उसके मस्तिष्क को झकझोर कर रख दिया । उसे गहरा आघात लगा उसका मन मृत्यु से बचने का उपाय ढूंढने में गहरे विचार में डूब गया था । इस घटना से मूल शंकर का प्रसुप्त वैराग्य जाग उठा । घर के कार्यों में अब उसका मन नहीं लगता था । वह जन्म मृत्यु के चक्कर से छूटने के उपाय सोचने लगा । उसने निश्चय कर लिया कि वह अपने मोक्ष का मार्ग छोड़ कर ही दम लेगा । और उसने सामान्य स्थिति बना कर पढ़ने लिखने से पूर्वक अपने मन को लगा लिया ।
दैव योग से 3 वर्ष बाद एक और दुखद घटना उसके परिवार में हो गई । चाचा जो मूल शंकर को हृदय से स्नेह करते थे बीमार हो गए । अनेक प्रयासों के पश्चात भी उन्हें भी नहीं बचाया जा सका । उस समय भी मूल शंकर अपने चाचा के समीप था । इस दृश्य ने मूल शंकर के हृदय में जगी वैराग्य की अग्नि को पर घी का काम किया । उसे दृढ़ निश्चय हो गया था कि संसार असर है घर के प्रति अब उसका कोई आकर्षण नहीं रह गया था । वह घर के बंधनों से छूटने के उपाय सोचने लगा अपने इस विचार के चर्चा वह अपने मित्रों से कर बैठे ।
उसके बाद इसका यह विचार माता-पिता तक पहुंच गया । वे सतर्क हो गए घर में रखने के लिए विवाह के बंधन से अच्छा और कोई उपाय उन्हें नहीं सोचा । इस कार्य में उन्होंने विलम नहीं किया उसके योग्य कन्या की तलाश कर ली गई । बीस वर्ष में मूल शंकर का विवाह कर देने का निश्चय हो गया । उसने यह समाचार सुना तो उसके पैरों तले की जमीन खिसक गई । वह चिंतित हो उठा क्योंकि गृहस्थी के बंधन में वह बंधना नहीं चाहता था । तथा उपाय विचार कर उसने पिता से कहा मैं काशी जाकर वैदिक व्याकरण और ज्योतिष आदि ग्रंथ पढ़ना चाहता हूं । शिक्षित होकर विवाह करना ही ठीक होगा । उसके इस विचार से परिवार का कोई भी सदस्य सहमत नहीं हुआ । उन्होंने कहा कि पढ़ने के लिए हम तुम्हें कहीं नहीं भेजेंगे और ज्यादा पढ लिखकर तुम्हें करना क्या है घर में तुम्हारे लिए बहुत काम है।
यह सुनकर अब मूल शंकर ने घर में ठहरना उचित नहीं समझा । अतः उसने अपने ग्राम से 3 कोस दूर अपने ही जमीदारी में रह रहे एक विद्वान पंडित से पढ़ने की आज्ञा पिता से प्राप्त कर ली । और वह उसी गांव में रहने लगा वैराग्य का विचार दृढ होता जा रहा था । इस कारण उस गांव के निवासियों के सामने भी उसने अपनी इच्छा प्रकट कर दी । इससे उसका यह विचार उसके परिवारजनों तक पहुंच गया और उन्होंने उसे तुरंत मूल शंकर को वापस बुला लिया । इस समय उसकी अवस्था 21 वर्ष को पार कर चुकी थी वह विवाह की तैयारियां आरंभ कर दी । वस्त्र आभूषण की खरीदारी प्रारंभ हुई घर को सजाया जाने लगा प्रसंता के मारे माता पिता के पैर धरती पर ना पढ़ते थे ।
पिता अति व्यस्त थे । दौड़ दौड़ कर सारी व्यवस्था देख रहे थे । पूरा टंकारा गांव ही इस विवाह उत्सव को देखने के लिए उत्साहित था । परंतु इधर मूल शंकर के मन में विचारों का तूफान उठ खड़ा हुआ वह ग्रह गृहस्ती के बंधन के में सदा के लिए छोड़ना चाहता था । उसके विचार में ऐसा किए बिना योग सिद्धि संभव नहीं थी । और योग सिद्धि के बिना मोक्ष का मार्ग पाया नहीं जा सकता था । जिसे प्राप्त करना उसने तय कर लिया था वह मृत्यु पर विजय प्राप्त करना चाहता था ।
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