मानवाधिकार पर निबंध || Essay on Human Rights in hindi

मानवाधिकार पर निबंध  (Essay on Human Rights) -




मानवाधिकारों का संरक्षण कभी भी स्थिर कानूनों द्वारा सुनिश्चित नहीं किया जा सकता। एक न्यायपूर्ण समाज के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कानून सदैव व निरंतर गतिशील होने चाहिए। इस दिशा में भारत के संवैधानिक कानून अपवाद नहीं हैं। कानून की व्याख्या करते समय न्यायिक व्यवहार समय के साथ-साथ परिवर्तित होता रहता है और यह परंपरागत कार्यविधि की बाधाओं से आगे जा चुका है। मानवाधिकारों के संबंध में न्यायपालिका की भूमिका बहुत ही प्रशंसनीय और उत्साहजनक रही है। न्यायपालिका ने मौलिक अधिकारों की व्याख्या करके समाज के कमजोर वर्गों, जैसे- बच्चों, महिलाओं, वृद्धों तथा विकलांगों के अधिकारों का बचाव किया है। यदि आज नीति निर्देशक सिद्धांतों ने लगभग अधिकारों की स्थिति प्राप्त कर ली है, तो इसका सारा श्रेय न्यायपालिका द्वारा संविधान की गतिशील पुनर्व्याख्या को ही जाता है जिसके कारण मौलिक अधिकारों और राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के बीच की दूरी तेजी से घट रही है। उदाहरणार्थ - भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में जीवन तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संरक्षण प्रदान किया गया है। हाल के वर्षों में न्यायपालिका ने न्यायिक प्रक्रिया को अधिक कारगर बनाया है जिससे न्यायिक सक्रियता की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण बनती जा रही है। 'मेनका गांधी बनाम भारत संघ' के मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 21 के क्षेत्र को विस्तृत कर इस सिद्धांत को प्रतिपादित किया कि व्यक्तिगत स्वंतत्रता से वंचित करने की प्रक्रिया न्यायिक, उचित और निष्पक्ष होनी चाहिए। इसके परिणामस्वरूप भारतीय संविधान में कुछ अन्य अधिकारों को भी सम्मिलित किया गया है और आज वह अधिकार भारत के नागरिकों को प्राप्त है।

जैसा कि पहले कहा गया है कि भारत के अनुच्छेद 19 के अंतर्गत जीवन का अधिकार एक मौलिक अधिकार है परन्तु आजीविका को अनुच्छेद 39 (ए) के अंतर्गत राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांतों में स्थान दिया गया है। यह अनुच्छेद राज्य को निर्देश देता है कि, "राज्य अपनी नीति का संचालन इस प्रकार करेगा कि सभी स्त्रियों तथा पुरुषों को जीवन के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार सुनिश्चित हो।" अनुच्छेद 41 में काम के अधिकार पर ध्यान केंद्रित किया गया है। संविधान निर्माताओं का मानना था कि आजीविका के लिए काम का अधिकार आवश्यक है। 'जीवन के अधिकार' में क्या " आजीविका के अधिकार को शामिल किया जाये ? इस प्रश्न को लेकर दो दृष्टिकोण हैं। पहले दृष्टिकोण के अनुसार 'जीवन के अधिकार' में आजीविका का अधिकार सम्मिलित नहीं है। दूसरा दृष्टिकोण आज की न्यायिक व्यवस्था से अधिक निकटता का संबंध रखता है। इस दृष्टिकोण के अनुसार, 'जीवन के अधिकार' में आजीविका के अधिकार को समाविष्ट किया गया है। इस दृष्टिकोण के कई उदाहरण दिए जा सकते हैं, जैसे- एशियाड वर्कर्स केस बंधुआ मुक्ति मोर्चा केस ओलगा टेल्लीस केस । एशियाड वर्कर्स केस में न्यायालय ने कहा कि कर्मकारों को न्यूनतम मजदूरी का भुगतान न करना उन्हें मूलभूत मानवीय गरिमा के साथ जीवित रहने के अधिकार से वंचित करने के तुल्य है और यह अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है। आमतौर से पटरी वालों के केस के नाम से विख्यात केस में उच्चतम न्यायालय ने विचार व्यक्त किया कि अनुच्छेद 21 में 'जीवन' शब्द में आजीविका का अधिकार समाहित है। उसने कहा कि यदि आजीविका के अधिकार को संविधान में दिए गए 'जीवन के अधिकार' का हिस्सा नहीं माना जाता, तो किसी व्यक्ति को उसके अधिकार से वंचित कर दिया जाए।


- भारतीय संविधान में वर्णित मौलिक अधिकार - पाश्चात्य संविधान में मौलिक अधिकारों की धारणा का उदय जनता विशेषतया मध्यम वर्ग को शासक वर्ग की निरंकुशता से बचाने के लिए हुआ है और भारत में भी इन अधिकारों की पृष्ठभूमि यही थी । मौलिक अधिकारों की व्यवस्था करते समय संविधान निर्माता इस तथ्य से परिचित थे कि जिस पृष्ठभूमि ने अमरीकी अधिकार पत्र को जन्म दिया था उसके दिन अब लद चुके हैं तथा उसका स्थान कल्याणकारी राज्य की धारणा ने ले लिया है, परन्तु संविधान निर्माताओं का विचार था कि भारत में लोककल्याणकारी राज्य के दायित्वों को पूरा करने की आर्थिक क्षमता नहीं है। अपनी इस धारणा के आधार पर उन्होंने अधिकारों को दो भागों में बाँटा - वाद योग्य अधिकार और अवाद - योग्य अधिकार । इस प्रकार का विभाजन संवैधानिक परामर्शदाता बी. एन. राव के सुझाव पर किया गया था, लेकिन संविधान सभा के अनेक सदस्य इस प्रकार के विभाजन से सहमत नहीं थे। संविधान सभा के अनेक सदस्यों, विशेषतया कुंजरू, प्रमोद रंजन ठाकुर, सोमनाथ लाहिड़ी और आर. के. सिधावा आदि ने विचार व्यक्त किए थे कि वादयोग्य और अवाद-योग्य अधिकारों में विभाजन रेखा खींचना कठिन है और 'रोजगार के अधिकार' आदि आर्थिक सुधारों को मौलिक अधिकारों की सूची में स्थान दिया जाना चाहिए जिससे राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक न्याय की वास्तविक रूप में ही प्राप्ति की जा सके। मौलिक अधिकारों के मसविदे में आर्थिक अधिकारों की अनुपस्थिति पर टिप्पणी करते हुए विशंभर दयाल त्रिपाठी ने कहा था कि "मताधिकार को छोड़कर संविधान के अंतर्गत गरीब आदमी को कोई दूसरा अधिकार उपलब्ध नहीं हुआ।"

           अधिकार संबंधी मसविदे की इस आधार पर आलोचना की गई कि अधिकारों पर बहुत अधिक प्रतिबंध लगा दिए गए हैं। इस प्रकार का विचार कुंजरू, एच. वी. कामथ, सोमनाथ लाहिड़ी, बख्शी टेकचन्द, महावीर त्यागी और अन्य अनेक सदस्यों द्वारा व्यक्त किया गया, लेकिन सरदार पटेल और एन. जी. रंगा आदि सदस्यों द्वारा इन प्रतिबंधों को औचित्यपूर्ण बताया गया। इन प्रतिबंधों का आधार बतलाते हुए श्री मुंशी ने संविधान सभा में कहा था कि "सभा के अधिकांश सदस्य व्यक्तिगत स्वाधीनता की अपेक्षा सामाजिक नियंत्रण को स्थापित करने के लिए अधिक चिन्तित हैं।" इसी दृष्टिकोण के आधार पर संविधान के 21वें अनुच्छेद में 'कानून की उचित प्रक्रिया' शब्दों के स्थान पर 'कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया को छोड़कर' शब्दावली को अपनाया गया।

    जिस अधिकार और धारा ने संविधान सभा में सबसे अधिक विवाद को जन्म दिया, वह संपत्ति का अधिकार और उससे संबंधित अनुच्छेद 31 था। 19 मार्च, 1955 को संसद के चौथे संवैधानिक संशोधन पर डॉ. अम्बेडकर के भाषण का यह अंश उल्लेखनीय है - "जब 31वें अनुच्छेद की रचना हो रही थी, उस समय कांग्रेस दल अपने भीतर इस तरह विभाजित था कि हम यह नहीं जानते थे कि हम क्या करें, उसमें क्या व्यवस्था करें और क्या व्यवस्था न करें।" संविधान सभा में व्यक्त किया गया एक दृष्टिकोण व्यक्ति के अधिकार से संबंधित था, तो दूसरा सामाजिक हित से संबंधित संपत्ति के अधिकार की व्यवस्था इस रूप में की गई कि इन दोनों परस्पर विरोधी दृष्टिकोणों में समन्वय स्थापित हो सके। इसके साथ ही इस विचार को अपनाया गया कि अंतिम विश्लेषण में संतुलन स्थापित करने वाली सत्ता का निवास प्रभुत्वपूर्ण विधानमंडल में ही होना चाहिए, न्यायपालिका ब्यौरे की जाँच करे, किंतु मूल सिद्धांतों की नहीं।


संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने विशेषतया काजी सैयद करीमुद्दीन, हरिविष्णु कामथ, प्रो. नासिरुद्दीन और के.टी. शाह आदि ने इस बात पर बल दिया कि इन सिद्धांतों का क्रियान्वयन राज्य के लिए अनिवार्य होना चाहिए। इसी बात को ध्यान में रखते हुए संशोधन प्रस्तुत किया गया कि शीर्षक में 'निर्देशक' के स्थान पर 'मौलिक' शब्द का प्रयोग किया जाए। डॉ. अम्बेडकर और अन्य सदस्यों द्वारा इस प्रकार के संशोधन और उनके पीछे भावना को अस्वीकार कर दिया गया। उनके द्वारा कहा गया कि 'मौलिक' शब्द का प्रयोग अनावश्यक है, क्योंकि 'मौलिक' शब्द का प्रयोग न करते हुए भी राज-व्यवस्था के मौलिक सिद्धांतों के रूप में ही मान्यता प्रदान की गई है। द्वितीय, इन सिद्धांतों का प्रयोजन आने वाली व्यवस्थापिकाओं और कार्यपालिका को निर्देश देना ही है और इस दृष्टि से 'निर्देशक' शब्द ही उचित है।


इन तत्वों का उद्देश्य आर्थिक सामाजिक न्याय की प्राप्ति ही कहा जा सकता है, लेकिन इस संबंध में की गई समस्त व्यवस्था में स्पष्टता को अपनाने के बजाए अस्पष्टता को बनाए रखना ही उचित समझा गया। उदाहरण के लिए संविधान निर्माताओं ने न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने के संबंध में तीन वर्ष की समय सीमा प्रस्तावित की थी, लेकिन अंतिम रूप में टी.टी. कृष्णामाचारी आदि के विचारों को अपनाया गया कि "समय-सीमा की कोई आवश्यकता नहीं है और पृथक्करण के विचार की अभिव्यक्ति मात्र ही पर्याप्त है"। संविधान सभा के कुछ मुस्लिम सदस्यों ने एक समान नागरिक संहिता पर आपत्ति की थी और कहा था कि इससे मुसलमानों के धार्मिक अधिकारों पर चोट पहुँची है। श्री मुंशी ने इन आलोचनाओं का उत्तर देते हुए कहा कि “संविधान सभा ने धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को पहले से ही मान्यता दे रखी है और यह व्यवस्था उसके ही अनुकूल है।" संविधान के प्रारूप में गांधीवादी आदर्शों को कोई स्थान नहीं दिया गया था। इस अभाव की पूर्ति ग्राम पंचायतों, कुटीर उद्योगों, नशाबंदी तथा कृषि एवं पशुपालन को प्रोत्साहन आदि की व्यवस्था नीति निर्देशक सिद्धातों में करते हुए की गई। नीति निर्देशक सिद्धांतों को संविधान में स्थान देकर संविधान निर्माताओं ने जनता के सामाजिक एवं आर्थिक अधिकारों को मान्यता प्रदान की और इस प्रकार उन्होंने समाजवादी आदर्शों में अपनी आस्था व्यक्त की, लेकिन वस्तुतः उनमें समाजवादी आदर्शों की अपेक्षा उदारवादी आदर्शों की प्रबलता थी और इसी कारण इन नीति निर्देशक सिद्धांतों को अवाद - योग्य स्थिति ही प्रदान की गई। 

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