हड़प्पावासियों के कला और धर्म की विवेचना कीजिए
सिंधु स्थलों में कला उत्पादन की शानदार श्रेणी मिलती है। सीपी के शिल्पी सामान, अल्प मूल्य के रत्न और सेलखड़ी के मनके, अलंकृत मृणपात्र और उपकरणों के साथ-साथ घटिया और कीमती दोनों प्रकार के धातुओं के जेवरों की नगरों में व्यापक मांग थी। अब यह पर्याप्त रूप से स्पष्ट है कि सिंधु सभ्यता मुख्यत: कांस्य संस्कृति ही नहीं थी। शुद्ध तॉबे का प्रचलन जोरों पर था। इसके अतिरिक्त निम्न और उच्च कोटि के कांस्य से लेकर ताँबा-शीशा और ताँबा-निकेल के अनेक प्रकार के धातु मिश्रण का इस्तेमाल करना हड़प्पावासी जानते थे।
कारीगरी से बनाए गए पदार्थ विशुद्धतम रूप से सिंधु घाटी के हैं। इस तरह के पदार्थ नगरीय सभ्यता के आगमन के न पहले पाए जाते हैं, न उसके अवसान के बाद। उदाहरणस्वरूप, सिंधु की महरे (उत्कीर्ण, आकृति में वर्गाकार अथवा आयताकार और पशुओं के चित्रण जिनमें सर्वाधिक उल्लेखनीय एकाशृंगी है) यही बात सिंधु सभ्यता में जानवरों और मनुष्यों की प्रस्तर-मूर्तियों, (प्रसिद्ध मूर्ति एक पुरोहित राजा (priest king) की) से ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी राजनीतिक-धार्मिक महत्ता थी और वे मूर्तिकला की दृष्टि से उच्च कला की चीजें थीं इस पत्थर की नक्काशी के विलोप को नगर-केन्द्रों के परित्याग के साथ-साथ विशिष्ट वर्ग के समूहों के प्रसार और रूपांतरण के साथ जोड़ा जा सकता है। लम्बा पीपा वाला कार्नेसियन (जवाहरात में प्रयुक्त होने वाला लाल, भूरा या सफेद पत्थर) के मनके सिंधु का एक विशिष्ट विलासी उत्पाद माना जाता है जो मुख्यत: चन्हुदड़ो में निर्मित होते थे। उनकी कारीगरी के लिए कौशल और समय दोनों अपेक्षित थे। 6 से 13 सेंटीमीटर लम्बे मनके के छेदन में तीन से आठ दिन लगते थे।
स्पष्ट है कि नगरों के विध्वंस के बाद भारी गैर-नगरीकृत दृश्य-विधान में इस तरह का विशेषीकृत उत्पादन नहीं टिक सकता था। सिंधु की शिल्प-परंपरा किसी क्षेत्र-विशेष तक सीमित नहीं है। सीपी के सामान गुजरात के नागवाड़ा और नागेश्वर में तथा सिंध के चन्हुदड़ो और मोहनजोदड़ो में बनाए जाते थे। धातु की शिल्प सामग्रियाँ गुजरात के लोथल, पंजाब के बारी दॉआव में हडप्पा और सिंध के अल्लाहदीनों और मोहनजोदड़ो में बनती थीं। शिल्प-सामग्रियाँ अनेक स्थानों में बनने के बाद भी इनकी निर्माण तकनीकी आश्चर्यजनकरूप से मानकीकृत थी सीपी के कडों की समरूप चौड़ाई सभी स्थलों पर 5 मिलीमीटर से 7 मिलीमीटर के बीच होती थी और वे लगभग सभी स्थानों पर ऐसी आरी से चीरे जाते थे जिसकी धार की मोटाई 0.4 मिलीमीटर से 0.6 मिलीमीटर के बीच होती थी। शिल्प उत्पादन के व्यापक वितरण के संबंध में उतनी ही विलक्षण बात यह है कि अनेक मामलों में निर्माण ऐसी कच्ची सामग्रियों पर निर्भर था जो सिंध और बलूचिस्तान के समुद्री तट की बगल से मिलता था। हड्प्पा में भट्ठियों से लेकर धातु की मैल और अपरिष्कृत वस्तुओं तक ताँबा-आधारित शिल्प के सामानों के निर्माण का प्रभावशाली साक्ष्य उपलब्ध है।
हडप्पा सभ्यता की सन् 1921 ई० में खोज के पूर्व तक अधिकांश विद्वानों की यह मान्यता थी कि भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के तत्त्व मूलतः आर्य-भाषा-भाषियों की देन थे, लेकिन हड़प्पा सभ्यता के प्रकाश में आने के बाद इस मत से पर्दा उठ गया। हडप्पा सभ्यता के धर्म के विषय में अब तक निश्चयात्मक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि उत्खनन में कोई न्दिर अथवा पूजा स्थान से संबंधित अवशेष प्राप्त नहीं हुए हैं जिसके आधार पर सिन्धुवासियों के धार्मिक जीवन का पता चले। सिन्धुवासियों के धार्मिक जीवन के विषय में जानने का एकमात्र साधन मोहनजोदड़ो से प्राप्त मुहरें तथा मूर्तियाँ हैं। इस प्रकार यही कहा जा सकता है कि हड़प्पा संस्कृति में धर्म के विषय में लिखित साक्ष्यों का पूर्ण अभाव है। हडप्पा सभ्यता के विभिन्न पुरास्थलों से प्राप्त मूर्तियों (मिट्टी एवं पत्थर), पत्थर निर्मित लिंगों, योनियों, मुहरों, मुद्रकों तथा मृद्भाण्डों पर अंकित आकृतियों और कतिपय विशिष्ट प्रकार के भवनों एवं स्मारकों के अध्ययन के आधार पर धर्म के विषय में अनुमान लगाया गया है ।
सैन्धव सभ्यता के पुरातात्विक साक्ष्यों का इस दृष्टि से विशेष महत्त्व है कि वे आ्यों के पहले के आयेंत्तर भारतीय धर्म पर प्रकाश डालते हैं। मातृ-शक्ति की पूजा, पशुपति के रूप में देव उपासना, लिंग तथा योनि पूजा, पशु पूजा, वृक्ष पूजन, नाग उपासना, जल की पवित्रता, मूर्तिपूजा आदि सिन्धुघाटी (हड़प्पा) सभ्यता के अभिन्न धार्मिक अंग माने जाते हैं।
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