Who Was Arya | क्या आप जानते है आर्य कौन थे
आर्य कौन थे :- 1500 ई.पू. से 1000 ई.पू. के मध्य उन्नत भारत की राजनीतिक एवं सामाजिक दशा का वर्णन उत्तर-सिंधु सभ्यता के विनाश के बाद भारत में एक अन्य सभ्यता व संस्कृति का विकास हुआ। इस सभ्यता और संस्कृति के संस्थापकों और वाहकों को ही 'आर्य' कहा जाता है। 'आर्यों' ने भारतीय जीवन को हर तरह से प्रभावित किया है। आज भी भारतीय इतिहास का मूल्यांकन और महत्व 'आर्य' से जोड़कर जाना समझा जाता है। इतिहासकारों की सामान्य मान्यता है कि आर्य बाहर से भारत में आए थे।
राजनीतिक एवं सामाजिक दशा-
प्रारंभिक वैदिक अर्धव्यवस्था मुख्य रूप से पशुपालन की थी और गाय संपत्ति की सबसे महत्त्वपूर्ण प्रतीक थी। प्रारंभिक वैदिक लोगों के जीवन में खेती का स्थान गौण था। प्रारंभिक वैदिक समाज कबीलाई और मुख्यत: समतावादी था। कुटुम्ब और परिवार के संबंधों ने समाज का आधार निर्मित किया था और परिवार समाज की आधारभूत इकाई था। व्यवसाय पर आधारित सामाजिक विभाजन प्रारंभ हो चुका था, परंतु उस समय जातिगत विभाजन नहीं था। प्रारंभिक राजनैतिक व्यवस्था में जन के मुखिया या राजा और पुजारी या पुरोहित के महत्त्वपूर्ण स्थान थे। अनेकों गण सभाओं में से 'सभा व 'समिति' प्रशासन में विशेष योगदान करती थी। यद्यपि प्रारंभिक वैदिक व्यवस्था में स्पष्ट रूप से परिभाषित कोई राजनैतिक पदानुक्रम नहीं था फिर भी कबीले की राजनैतिक व्यवस्था पूर्णत: समतावादी नहीं थी।
प्रारंभिक वैदिक लोगों ने प्राकृतिक शक्तिया
जैसे-वायु, जल, वर्षा आदि को मूल रूप दिया और उनकी देवता की तरह पूजा करते थे। वे देवता की उपासना किसी अमूर्त दार्शनिक अवधारणा के कारण नहीं, बल्कि भौतिक लाभों के लिए करते थे। वैदिक धर्म में बलिदान या यज्ञ का महत्त्व बढ़े रहा था। यह विशेष रूप से स्मरणीय है कि यह समाज स्थिर नहीं, बल्कि गतिशील था। इन पाँच सौ वर्षों के दौरान (1500 ई०पू० से 1000 ई०पू०) समाज का लगातार विकास हो रहा था और आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं धार्मिक क्षेत्रों में नए-नए तत्त्व सामाजिक संरचना को रूपांतरित कर रहे थे उत्तर वैदिक काल का समाज चार वर्णों में विभक्त था-ब्राह्मण, राजन्य या क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। यज्ञ का अनुष्ठान अत्यधिक बढ़ गया था, जिससे ब्राह्मणों की शक्ति में अपार वृद्धि हुई।
उत्तर वैदिक काल के अंत में इस बात पर बल दिया जाता रहा है कि ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच परस्पर सहयोग रहना चाहिए ताकि समाज के शेष भाग पर उन दोनों का प्रभुत्व बना रहे। वैश्य राजाओं के परिजन होते हुए भी जनसामान्य की कोटि में स्थापित हुए, और उन्हें उत्पादन संबंधी काम सौंपा गया, जैसे कृपि, पशुपालन आदि। राजा, जो राजन्यों या क्षत्रियों का अगुआ था, अन्य तीनों वर्णों पर अपना प्रभुत्व जमाए रहने की चेष्टा करता रहा। सामान्यतः उत्तर वैदिककालीन ग्रंथों में तीन उच्च वर्णं और शूद्रों के बीच विभाजक रेखा देखने को मिलती है। परिवार स्तर पर, हम देखते कि पिता का अधिकार बढ़ता गया है ।
वह अपने पुत्र को उत्तराधिकार से वंचित कर सकता है। राजपरिवार में ज्येष्ठाधिकार का प्रचलन प्रबल होता गया। उत्तर वैदिक काल में गोत्र-प्रथा स्थापित हुई। गोत्र शब्द का मूल अर्थ है गोष्ठ या वह स्थान जहाँ समूचे कुल का गोधन पाला जाता था, परंतु बाद में इसका अर्थ एक ही मूल पुरुष में उत्पन्न लोगों का समुदाय हो गया। वैदिक काल में आश्रम अर्थात् जीवन के चार प्रक्रम सुप्रतिष्ठित नहीं हुए थे। वैदिकौतर काल के ग्रंथों में हमें चार आश्रम दिखाई देते हैं।
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