उत्तरवैदिक अर्थव्यवस्था एवं समाज पर एक निबंध | An essay on post-vedic economy and society

उत्तरवैदिक अर्थव्यवस्था एवं समाज पर एक निबंध लिखिए।

 

उत्तरवैदिक अर्थव्यवस्था एवं समाज पर एक निबंध


सामाजिक व्यवस्था-उत्तर वैदिक काल में जो राजनीतिक विकास हो रहा था वह अकेला ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटक नहीं था। उससे भी अधिक उल्लेखनीय परिवर्तन समाज तथा धर्म के क्षेत्र में धीरे-धीरे होते जा रहे थे ऋग्वैदिक काल में समाज चार वर्णों में विभाजित था। ये वर्ण कर्म यानी व्यवसाय पर आधारित थे और एक ही परिवार में भिन्न-भिन्न सदस्य अलग-अलग वर्णों का व्यवसाय अपना सकते थे। उत्तर वैदिक काल में वर्ण व्यवसाय की बजाय जन्म के आधार पर निर्धारित होने लगे थे। 


अब काम-धंधे भी कई तरह के हो चले थे, उनके अनुसार अलग-अलग जातियाँ बनने लगी थीं, लेकिन अभी तक जाति-व्यवस्था में वैसी कठोरता नहीं आई जैसी कि आगे चलकर सूत्रकाल में आ गई थी। यह अवस्था ऋग्वैदिक लचीले समाज और सूत्रकाल के कठोर समाज के बीच के स्थिति थी। जाति की उत्पत्ति उस युग में एक अत्यंत असामान्य घटना तो थी, पर शायद इसे असंभव नहीं कहा जा सकता। ऋग्वेद में विश्वामित्र को एक ऋषि बताया गया है, लेकिन ऐतरेय ब्राह्मण उन्हें क्षत्रिय बताता है। इसी ब्राह्मण ग्रंथ में हम देखते हैं कि जाति के मामले में कठोरता आने लगी थी। 


चौथे वर्ण यानी श्रं की स्थिति दयनीय बना दी गई थी, क्योंकि उन्हें यज्ञ करने, पवित्र ग्रंथों को पढ्ने और यहाँ तक कि अचल संपत्ति के स्वामित्व के अधिकारों से वंचित कर दिया गया था जाति-प्रथा की सबसे घृणित बुराई, यानी अस्पृश्यता की अवधारणा ने अभी अपना सिर नहीं उठाया था। कवश, वत्य और सत्यकाम जाबाल जैसे व्यक्तियों के कुछ उदाहरण हैं, जो ब्राह्मणेत्तर जातियों में उत्पन्न हुए थे, लेकिन उन्हें महान ब्राह्मण माना जाने लगा था। कुल मिलाकर देखें तो अभी तक जाति-प्रथा में अधिक कठोरता नहीं आई थी और उसमें ये तीन तत्त्व, अर्थात् परस्पर भोजन और परस्पर-विवाह का निषेध और वंश से वर्ण का निर्धारण कठोर आधार पर अभी तक स्थापित नहीं हुए थे।


आर्थिक जीवन-कृषकों, पशुपालकों, व्यापारियों आदि की सफलता एवं समृद्धि के लिए अथर्ववेद में दी गई अनेक प्रार्थनाओं से तत्कालीन आर्थिक समृद्धि के विकास का पता चलता है। ऐसी प्रार्धनाएँ खेत की जोताई, बीजों की बोआई, वर्षा, पशुधन और संपत्ति में बढ़ोतरी और हानि पहुँचाने वाले जीव-जंतुओंजंगली जानवरों, डाकू-लुटेरों और ऐसे ही अन्य हानिकारक तत्वों को दूर भगाने या उनसे बचने के लिए की जाती थीं। हल को सिरा और हलरेखा को सीता कहा जाता था। गोबर का खाद के रूप में प्रयोग किया जाता था। हल में छः, आठ और यहाँ तक की चौबीस बैल जोते जाने का उल्लेख है। अनेक प्रकार के खाद्यान्न; जैसे चावल, जौ, फलियाँ और तिल उगाए जाते थे। 


उनके लिए उपयुक्त ऋतुओं का भी उल्लेख है; जैसे-जी सर्दियों में उगाया जाता था और गर्मियों में पकने पर काटा जाता था; चावल/धान वर्षा ऋतु में बोया जाता था और शरद ऋतु में काटा जाता था। शतपथ ब्राहमण में कृषि की कई क्रियाओंजैसे-जोताई, बोआई, कटाई और गहाई आदि को गिनाया गया था खेती को नुकसान पहुँचाने वाले कई जीव-जंतुओं का भी उल्लेख मिलता है; जैसे-छछूंदर बीज को नष्ट कर देते थे और अन्य जीव कोमल अंकुरों को काट डालते थे तथा अतिवृष्टि से खेती को हानि पहुँचती है। पशु-धन को बहुत महत्त्व दिया जाता था और अथर्ववेद का एक काफी लंबा मंत्र यह दर्शाता है कि गायों को पूज्य माना जाता था और गोहत्या के लिए मृत्युदंड की व्यवस्था थी। अनेक संदर्भां में धनी वणिकों एवं व्यापारियों का उल्लेख मिलता था। व्याज पर ऋण दिया जाता था तौल और माप की विशिष्ट इकाइयों का भी प्रयोग होता था।


निष्क और शतमान मुद्रा की इकाइयाँ थीं, लेकिन उत्तर वैदिक काल में किसी खास भार, आकृति और मूल्य के सिक्कों के चलन का कोई साक्ष्य नहीं मिलता। बाजार में मोल-भाव करने का रिवाज ऋग्वैदिक काल से ही चला रहा था। समुद्री मार्ग से भी व्यापार की जानकारी थी और ऐतरेय ब्राहमण में अथाह,अनंत जलधि और पृथ्वी को घेरने वाले समुद्र का उल्लेख है। बलि पहले राजा या मुखिया को स्वेच्छा से भेंट के रूप में दी जाती थी, लेकिन अथ उसने नियमित कर का रूप घारण कर लिया था और उसे राजनीतिक तथा प्रशासनिक ढाँचे के रख-रखाव के लिए बाकायदा वसूल किया जाने लगा था उद्योग और काम-धंधों में अब उल्लेखनीय विकास हो चुका था  


इस काल में हम मछुआरों, वनपालों, धोबियों, नाइयोंकसाइयों, हाथी पालकों, महावतों, पदातियों, संदेशवाहक, आभूषण, टोकरियाँ, रस्सियाँ, रंग, रथ, धनुष आदि बनाने वालों, सुनारों, लोहारों, कुम्हारों आदि का उल्लेख पाते हैं। व्यापारियों, वणिक श्रेणियोंसार्थवाही और समुद्री व्यापार का भी अनेक स्थलों पर उल्लेख किया गया है शिल्पियों की श्रेणियाँ भी अस्तित्व में चुकी थीं। श्रेणी (गिल्ड) के मुखिया श्रेष्ठि का भी अनेक प्रसंगों में उल्लेख मिलता है। ऋग्वैदिक काल में हम अवस् का भी उल्लेख पाते हैं, जिसका अर्थ ताँबा/कांसा लगाया गया है। इस युग में नए घातु अर्थात् लोहे के आविष्कार से हम श्याम अयस (लोहा) और लोहित अयस् (ताँबा) शब्द को भी उल्लेख पाते हैं। 


इनके अलावा, सोने, सीसे, और वंग (राँगे) का भी उल्लेख पाया जाता है। लोहे की इस्तेमाल हथियार और नहरने, हथीड़े, चिमटे, हल की फाल आदि वस्तुएँ बनाने के लिए किया जाता था। ताँबे से बर्तन बनाए जाते थे। सोने और चाँदी का उपयोग आभूषण तथा प्लेटें आदि बनाने के लिए किया जाता था।


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