भारत का प्रथम चंद्र अभियान
अंतरिक्ष उड़ान के क्षेत्र में भारत ने एक लम्बी छलांग अक्टूबर 2008 में उस समय लगाई जब चंद्रमा की कक्षा के लिए अपना पहला चंद्रयान भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (इसरो) ने रवाना किया। 1380 किग्रा. वजन वाले चंद्रयान प्रथम का प्रक्षेपण आंध्रप्रदेश में श्री हरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केन्द्र से 22 अक्टूबर, 2008 को प्रातः 6.20 बजे ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण वाहन (PSLV-सी 11) के जरिए किया गया।
'इसरो' अध्यक्ष जी. माधवन नायर सहित अनेक वरिष्ठ वैज्ञानिक इस ऐतिहासिक अवसर पर प्रक्षेपण स्थल पर उपस्थित थे। पीएसएलवी-सी 11 ने चंद्रयान प्रथम को शुरू में 22866 किमी और 256 किमी की बीच की प्रारंभिक कक्षा में स्थापित किया।
बेंगलुरु स्थित स्पेसक्राफ्ट कंट्रोल सेंटर (SSC) द्वारा पांच बार ऊपरी कक्षाओं में स्थानांतरित किए जाने के बाद 8 नवंबर, 2008 को यह चंद्रमा की कक्षा में प्रवेश कर लिया। 22 दिन के लंबे सफर के बाद 12 नवंबर को इसने चांद की सतह से सौ किमी. की ऊंचाई पर चंद्रमा की निकटस्थ तय कक्षा में सफलतापूर्वक प्रवेश कर लिया।
भारत द्वारा भेजे गए प्रथम चंद्र मिशन के तीन प्रमुख उद्देश्य हैं
पहला, चंद्रमा से संबंधित जानकारी में इजाफा, भारत की तकनीकी क्षमता को उन्नत करना और तीसरा उपग्रह से संबंधित अध्ययन करने वाले युवा भारतीय वैज्ञानिकों के सामने चुनौतीपूर्ण अवसर प्रस्तुत करना। चंद्रयान मिशन न सिर्फ हमारे वैज्ञानिकों के आत्मविश्वास का परिचायक है, बल्कि पृथ्वी से अलग हटकर ब्रह्मांड के अन्य ग्रह- नक्षत्रों के बारे में ज्ञान जिज्ञासा का प्रतीक भी चंद्रयान प्रथम चांद की सतह की समग्र मैपिंग करेगा, जो पहले किसी भी देश ने नहीं की है । इससे प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण किया जाएगा, जो उस भावी चंद्रयान-2 के अनुसंधान का आधार बनेगा, जिसकी मंजूरी भारत सरकार दे चुकी है। चांद पर खनिज, पानी और हीलियम की मौजूदगी के बारे में अनुमान लगाए जाते रहे हैं, जिनके बारे में अनुसंध न हमें कई फायदे दिला सकता है।
चंद्रयान
प्रथम दो साल के मिशन के दौरान चंद्रमा की सतह पर हीलियम-३ की खोज करेगा। पहले के चंद्र अभियानों ने चंद्रमा की सतह पर हीलियम की मौजूदगी का पता लगाया था। इसे धरती पर लाकर भविष्य में उन्नत फ्यूजन रिएक्टरों के जरिए परमाणु बिजली का उत्पादन करना संभव हो सकेगा। धरती पर घटते जीवाश्म ईंधन भंडार के कारण दुनिया के विकसित देशों की निगाहें पृथ्वी के स्वभाविक उपग्रह चंद्रमा पर प्रचुर मात्रा में मौजूद हीलियम सहित अन्य ऊर्जा स्रोतों पर हैं।
काफी लंबे अंतराल के बाद दुनिया के विकसित राष्ट्रों ने चंद्रमा पर ऊर्जा स्रोतों की खोज के लिए एक बार फिर से चंद्र अभियान शुरू करने की घोषणा की है। यही कारण है कि चंद्रमा पर ४० साल पहले इंसान के कदम रखने के बाद भी भारत के पहले चंद्र अभियान को दुनिया भर में तवज्जो दी जा रही है। अमेरिका के बाद उन्नत तकनीकी क्षमता के कारण चंद्रमा की सतहों की पड़ताल करने वाला भारत विश्व का दूसरा देश बन जाएगा।
आमतौर पर हीलियम गैस का उपयोग गुब्बारे फूलाने में किया जाता है। इसके समस्थानिक हीलियम-3 सोना से भी 100 गुना अधिक महंगा है। भविष्य के परमाणु और ऑटोमोटिव ईंधन माने जा रहे हीलियम-३ का अंतर्राष्ट्रीय बाजार में प्रति टन भाव 13,500 करोड़ रुपये है जबकि धरती का सबसे महंगा धातू सोना का भाव प्रति टन 140 करोड़ ही है।
इसरों के बेंगलुरु स्थित उपग्रह केंद्र के निदेशक टी.के. अलेक्स के अनुसार बड़े पैमाने पर ऊर्जा उत्पादन में सहायक हीलियम-3 की चंद्रमा की सतह पर मौजूदगी का पता लगाने की दिशा में चंद्रयान-1 का मिशन मील के पत्थर के समान हैं।
अलेक्स कहते हैं कि दुनिया भर के अंतरिक्ष वैज्ञानिकों का मानना है कि अगले कुछ वर्षों में चंद्रमा से हीलियम-3 को लाना संभव हो जाएगा जिससे नाभिकीय संयंत्रों का परिचालन के साथ विद्युत उत्पादन भी हो सकेगा अंतरिक्ष वैज्ञानिकों का मानना है कि अगले दशक में ऐसा फ्यूजन रिएक्टर उपलब्ध हो जाएगा जिससे हीलियम-३ के जरिए भी परमाणु बिजली का उत्पादन किया जा सकेगा।
चांद की सतह पर खनिज के भंडारों का पता लगाने के लिए चंद्रयान -प्रथम में इसरो ने एक खास किस्म का कैमरा-हाइपर स्पेक्ट्रल इमेजिंग कैमरा (एचवाईएसआई) भी भेजा है। इस कैमरे की नजर मैटिस समूह के श्रिम्प कीट की आंख की तरह पैनी होती है। यह कीट इलेक्ट्रोमैग्नेटिक, अल्ट्रावायलेट और इन्फ्रारेड तरंगों के भीतर भी अपने शिकार को पहचान लेता है। भले ही एक रंग के कई शिकार हों लेकिन यह अपने पसंदीदा भोजन मूंगा को पहचान लेता है। इन तरंगों के बीच कोई भी आदमी उजाले में सिर्फ रंग तक की पहचान कर सकता है। एक जैसे रंग और आकार में यदि दो वस्तुएं हैं तो व्यक्ति के लिए पहचान संभव नहीं। लेकिन श्रिम्प कीट या एचवाईएसआई कैमरे के लिए पहचानना मुश्किल नहीं ।
इसरो के वैज्ञानिकों अनुसार इस कैमरे का मुख्य कार्य यह तलाश करना होगा कि चंद्रमा पर मौजूद चट्टानों, पहाड़ों, बर्फ, धूल आदि के बीच क्या-क्या खनिज पदार्थ छुपे हुए हैं। इसके दो फायदे है। एक तो यह पता चलेगा कि चंद्रमा किन खनिजों, धातुओं के कम्पोजिशन से बना है दूसरा फायदा यह है कि किस स्थान पर कौन से खनिज-धातुएँ हो सकती हैं, इसकी मैपिंग हो जाएगी। हालांकि पूर्व के अभियानों में भी इस तरह की जानकारी वैज्ञानिक जुटाते रहे हैं लेकिन आधुनिक उपकरण से मौजूदा जानकारी में इजाफा होगा।
कैमरा न सिर्फ सामान्य चंद्र सतह की पड़ताल करेगा बल्कि ऊंची चोटियों और गहरी खाइयों में भी झांकेगा। चूंकि चंद्रमा पर इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंगों का प्रभाव ज्यादा है, इसलिए सामान्य कैमरे से यह कार्य संभव नहीं। इस तरह के कैमरे १६६५ विकसित हुए थे। इसलिए पहले के चंद्र अभियानों में ऐसे कैमरों का इस्तेमाल नहीं हुआ।
उल्लेखनीय है कि चंद्रमा के बारे में जानने के लिए मानव शुरू से ही उत्सुक रहा है। माना जाता है कि साढ़े चार अरब वर्ष पहले पृथ्वी से टूटकर चांद बना। जब धरती पर इंसानों का विकास हुआ तो उन्होंने चांद को एक रहस्यमय पिंड और फिर देवता के रूप में देखा। सन् 1609 में गैलीलियो ने पहली बार दूरबीन से चांद को देखा और पाया कि वह भी पृथ्वी की तरह जमीन का टुकड़ा है।
चांद को लेकर भ्रम टूटने लगे सबसे पहले 2 जनवरी, 1959 को सोवियत संघ ने लूना-1 मिशन चांद पर भेजा था। कुछ ही दिन बाद 3 मार्च, 1959 को अमेरिका ने पॉयनियर-4 मिशन भेजा। 20 जुलाई, 1969 को अमेरिकी उपग्रह अपोलो-11 से पहला अंतरिक्ष यात्री नील आर्मस्ट्रांग चंद्रमा पर उतरा था । यह चंद्रमा पर 42वां मिशन था। चंद्रयान प्रथम का काम पूरा करने के बाद एचईसी की निगाहें अब चंद्रयान-टू पर हैं।
भारत सरकार ने इसरो की इस परियोजना को मंजूरी दे दी है। इसका प्रक्षेपण रूस के सहयोग से किया जाएगा। चंद्रयान प्रथम मानव रहित उपग्रह है, जबकि चंद्रयान-2 में वैज्ञानिकों को चंद्रतल पर भेजने की योजना है।
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