औपनिवेशिक क्या होता है - What is colonial in Hindi

 औपनिवेशिक क्या होता है?


औपनिवेशिक क्या होता है?



इस पोस्ट में जानेंगे की किस तरह अंग्रेजों ने हमारे देश को जीता और स्थानीय नवाबों और राजाओं को दबाकर अपना शासन स्थापित किया।  किस तरह उन्होंने अर्थव्यवस्था व समाज पर नियंत्रण स्थापित किया, अपने सारे खर्चों को निपटाने के लिए राजस्व वसूल किया, अपनी ज़रूरत की चीज़ों को सस्ती कीमत पर ख़रीदा, निर्यात के लिए महत्वपूर्ण फ़सलों की खेती करायी और इन सारी कोशिशों के कारण क्या बदलाव आए। आप ये भी जानेंगे कि ब्रिटिश शासन के कारण यहाँ की मूल्य-मान्यताओं और पसंद-नापसंद, रीति-रिवाज व तौर-तरीकों में क्या बदलाव आए। जब एक देश पर दूसरे देश के दबदबे से इस तरह के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव आते हैं तो इस प्रक्रिया को औपनिवेशीकरण कहा जाता है।


लेकिन, सारे वर्ग और समूह इन बदलावों को एक ही ढंग से अनुभव नहीं कर रहे थे। इसीलिए, इस किताब को हमारे अतीत (यानी कई अतीतों पर केंद्रित) नाम दिया गया है।


भारतीय इतिहास के पिछले 250 साल का इतिहास लिखने के लिए इतिहासकार कौन से स्रोतों का इस्तेमाल करते हैं?


प्रशासन अभिलेख तैयार करता है


अंग्रेज़ी शासन द्वारा तैयार किए गए सरकारी रिकॉर्ड इतिहासकारों का एक महत्वपूर्ण साधन होते हैं। अंग्रेज़ों की मान्यता थी कि चीज़ों को लिखना बहुत महत्वपूर्ण होता है। उनके लिए हर निर्देश, हर योजना, नीतिगत फैसले, सहमति, जाँच को साफ़-साफ़ लिखना ज़रूरी था। ऐसा करने के बाद चीजों का अच्छी तरह अध्ययन किया जा सकता था और उन पर वाद-विवाद किया जा सकता है। इस समझदारी के चलते ज्ञापन, टिप्पणी और प्रतिवेदन पर आधारित शासन की संस्कृति पैदा हुई।


अंग्रेज़ों को यह भी लगता था कि तमाम अहम दस्तावेज़ों और पत्रों को सँभालकर रखना ज़रूरी है। लिहाज़ा, उन्होंने सभी शासकीय संस्थानों में अभिलेख कक्ष भी बनवा दिए। तहसील के दफ़्तर, कलेक्टरेट, कमिश्नर के दफ्तर, प्रांतीय सचिवालय, कचहरी - सबके अपने रिकॉर्ड रूम होते थे। महत्वपूर्ण दस्तावेज़ों को बचाकर रखने के लिए अभिलेखागार (आर्काइव) और संग्रहालय जैसे संस्थान भी बनाए गए।


उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में प्रशासन की एक शाखा से दूसरी शाखा के पास भेजे गए पत्रों और ज्ञापनों को आप आज भी अभिलेखागारों में देख सकते हैं। वहाँ आप जिला अधिकारियों द्वारा तैयार किए गए नोट्स और रिपोर्ट पढ़ सकते हैं या ऊपर बैठे अफ़सरों द्वारा प्रांतीय अधिकारियों को भेजे गए निर्देश और सुझाव देख सकते हैं। उन्नीसवीं सदी के शुरुआती सालों में इन दस्तावेज़ों की सावधानीपूर्वक नक़लें बनाई जाती थीं।


उन्हें खुशनवीसी के माहिर लिखते थे। खुशनवीसी या सुलेखनवीस ऐसे लोग होते हैं जो बहुत सुंदर ढंग से चीजें लिखते हैं। उन्नीसवीं सदी के मध्य तक छपाई तकनीक भी फैलने लगी थी। इस तकनीक के सहारे अब प्रत्येक सरकारी विभाग की कार्रवाइयों के दस्तावेजों की कई-कई प्रतियाँ बनाई जाने लगीं।


सर्वेक्षण का बढ़ता महत्व


औपनिवेशिक शासन के दौरान सर्वेक्षण का चलन भी महत्वपूर्ण होता गया। अंग्रेज़ों का विश्वास था कि किसी देश पर अच्छी तरह शासन चलाने के लिए उसको सही ढंग से जानना ज़रूरी होता है।


उन्नीसवीं सदी की शुरुआत तक पूरे देश का नक्शा तैयार बड़े-बड़े सर्वेक्षण किए जाने लगे। गांवों में राजस्व सर्वेक्षण किए गए। इन सर्वेक्षणों में धरती की सतह, मिट्टी की गुणवत्ता, वहाँ मिलने वाले पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं तथा स्थानीय इतिहासों व फ़सलों का पता लगाया जाता था। अंग्रेज़ों की राय में किसी इलाके का शासन चलाने के लिए इन सारी बातों को जानना ज़रूरी था। उन्नीसवीं सदी के आखिर से हर दस साल में जनगणना भी की जाने लगी। जनगणना के ज़रिए भारत के सभी प्रांतों में रहने वाले लोगों की संख्या, उनकी जाति, इलाके और व्यवसाय के बारे में जानकारियाँ इकट्ठा की जाती थीं। इसके अलावा वानस्पतिक सर्वेक्षण, प्राणि वैज्ञानिक सर्वेक्षण, पुरातात्वीय सर्वेक्षण, मानवशास्त्रीय सर्वेक्षण, वन सर्वेक्षण आदि कई दूसरे सर्वेक्षण भी किए जाते थे।


अधिकृत रिकॉर्ड्स से क्या पता नहीं चलता


रिकॉर्ड्स के इस विशाल भंडार से हम बहुत कुछ पता लगा सकते हैं। फिर भी, इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि ये सारे सरकारी रिकॉर्ड हैं। इनसे हमें यही पता चलता है कि सरकारी अफ़सर क्या सोचते थे, उनकी दिलचस्पी किन चीज़ों में थी और बाद के लिए वे किन चीज़ों को बचाए रखना चाहते थे। इन रिकॉर्ड्स से हमें ये समझने में हमेशा मदद नहीं मिलती कि देश के दूसरे लोग क्या महसूस करते थे और उनकी कार्रवाइयों की क्या वजह थी।


 इन बातों को जानने के लिए हमें कहीं और देखना होगा। 


जब हम ऐसे दूसरे स्रोतों की तलाश में निकलते हैं तो उनकी भी कोई कमी नहीं रहती। लेकिन, सरकारी रिकॉर्ड्स के मुकाबले उन्हें ढूँढना ज़रा मुश्किल साबित होता है। इस लिहाज़ से लोगों की डायरियाँ, तीर्थ यात्राओं और यात्रियों के संस्मरण, महत्वपूर्ण लोगों की आत्मकथाएँ और स्थानीय बाजारों में बिकने वाली लोकप्रिय पुस्तक-पुस्तिकाएँ महत्वपूर्ण हो जाती हैं। जैसे-जैसे छपाई की तकनीक फैली, अख़बार छपने लगे और विभिन्न मुद्दों पर जनता में बहस भी होने लगी। नेताओं और सुधारकों ने अपने विचारों को फैलाने के लिए लिखा, कवियों और उपन्यासकारों ने अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए लिखा।


लेकिन ये सारे स्रोत उन लोगों ने रचे हैं जो पढ़ना-लिखना जानते थे। इनसे हम यह पता नहीं लगा सकते कि आदिवासी और किसान, खदानों में काम करने वाले मज़दूर या सड़कों पर जिंदगी गुजारने वाले गरीब किस तरह के अनुभवों से गुजर रहे थे।


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