उत्तर वैदिक ग्रंथों में प्रतिबिंबित भौतिक परिस्थितियों की पुष्टि लौहयुगीन / चित्रित धूसर मृद्भाण्डीय पुरातात्विक संस्कृति की खोजों से हो जाती है ?-The physical conditions reflected in the later Vedic texts

 प्रश्न . क्या आप इस मत से सहमत हैं कि उत्तर वैदिक ग्रंथों में प्रतिबिंबित भौतिक परिस्थितियों की पुष्टि लौहयुगीन / चित्रित धूसर मृद्भाण्डीय पुरातात्विक संस्कृति की खोजों से हो जाती है ?

(The physical conditions reflected in the later Vedic texts are confirmed by the discoveries of the Iron Age / Painted Gray Ware archaeological culture?) 


उत्तर- कांस्ययुगीन सभ्यता के पश्चात् लौहयुगीन संस्कृतियों का प्रारंभ होता है। लगभग 1400 ई.पू. के आस-पास एशिया माइनर में लोहे की खोज ने मानव जीवन में महत्त्वपूर्ण क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया। अब कांसे के स्थान पर लोहे के उपकरण बनने लगे जो ज्यादा स्थायी, टिकाऊ, उपयोगी और कम खर्चीले थे। लोहे के उपकरणों एवं हथियारों का उपयोग कृषि उत्पादन तथा युद्ध में होने लगा। इसका सबसे महत्त्वपूर्ण लाभ यह हुआ कि नदी-घाटियों से दूर कृषि पर आधारित बस्तियों की स्थापना हुई। लौहयुग के निरंतरता के कारण ही सिक्के का प्रचलन हुआ, नगरों का विकास हुआ तथा बड़े-बड़े क्षेत्रीय राज्यों का उदय हुआ। भारत में अनेक स्थलों की खुदाइयाँ की गई हैं जहाँ लौहयुगीन संस्कृतियों का प्रमाण मिलता है। सामान्य तौर पर यह माना जाता है कि भारत में आर्यों के आगमन के साथ ही लोहे का प्रचलन आरंभ हुआ। उत्तर वैदिक काल से लोहे का प्रमाण पुरातात्विक एवं साहित्यिक ग्रंथों में मिलता है। लगभग 1000 ई.पू. से गंधार, बलूचिस्तान, पूर्वी पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान इत्यादि क्षेत्रों से लोहे के प्रयोग का प्रमाण मिलता है। इस समय की संस्कृति एवं अर्थव्यवस्था ऋग्वैदिक काल की तुलना में अधिक विकसित थी। इस समय के भाले, काँटे, कुल्हाड़ियाँ, जखेड़ा से कुदाल, अतरंजीखेड़ा से दरातियाँ, चाकू इत्यादि मिले हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण बात है कि अनेक स्थलों से लौह अयस्क मिलते हैं, जिनसे अनुमान लगाया जाता है कि वहाँ लोहे की ढलाई होती थी। इस युग में चाक की सहायता से विशेष प्रकार के मिट्टी के बने बर्तन चित्रित धूसर मृदभांड (Painted Grey Ware) रूप से पाए जाते हैं। अतः इस संस्कृति को चित्रित धूसर मृदभांड संस्कृति ( Painted Grey Ware Culture ) भी कहा जाता है।


इस समय की आर्थिक स्थिति अत्यंत उन्नत थी। स्थायी निवास, विस्तृत कृषि, शिल्प तथा व्यवसाय के प्रमाण इस समय मिलते हैं। इस समय की उन्नत अर्थव्यवस्था ने छठी शताब्दी ई.पू. में हुए गंगाघाटी में शहरीकरण के दूसरे चरण की पृष्ठभूमि तैयार कर दी। अहिच्छत्र, आलमगीरपुर, अतरंजीखेड़ा, हस्तिनापुर, मथुरा, रोपड़, नोह, नगदा, एरण, पांडुराजार ढीबी, चिरांद इत्यादि अनेक स्थलों से लोहा एवं चित्रित धूसर मृदभांड मिले हैं। दक्षिण भारत के महापाषाणों से भी 1000 ई.पू. के आस-पास से लोहा मिलता है। अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि 1000 ई.पू. के आस-पास से भारत में लौह युग आरंभ हो चुका था तथा लौहयुगीन संस्कृतियों में कृषि के उत्पादन में वृद्धि हो रही थी तथा जीवन स्थायित्व की तरफ अग्रसर हो रहा था।

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